चंदन मुख्य रूप से कर्नाटक और इसके आसपास के क्षेत्रों का वृक्ष है। दक्षिण भारत के अन्य राज्यों में भी इसके वृक्ष पाये जाते है। यह मूल रूप से पथरीले और पहाड़ी क्षेत्रों का वृक्ष है। मैसूर, कुर्ग, मालाबार आदि में चंदन के विशाल जंगल है। चंदन के वृक्ष दक्षिण भारत के साथ ही साथ भारत के अन्य भागों में भी पाये जाते है, किन्तु दक्षिण भारत के चन्दन के वृक्षों की लकड़ी अधिक तेल वाली और सुगंधित होती है।
भारत और पूर्वी एशिया के कुछ अन्य देशों के साथ ही चंदन का वृक्ष दक्षिण प्रशांत के कुछ द्वीपों पर भी पाया जाता है। विश्व में सब मिलाकर चंदन की लगभग 10 प्रजातियां पायी जाती है। इनमे सफ़ेद चंदन (सैंटेलम एल्बम) सर्वाधिक उपयोगी माना जाता है। भारत में चार प्रकार के चंदन के वृक्षों की जानकारी है- सफ़ेद चंदन, पीला चंदन, लाल चंदन और कुचंदन। विद्वानों का मत है कि सफ़ेद चंदन और पीला चंदन एक है तथा लाल चन्दन को ही कुचंदन कहा गया है।
चंदन मध्यम आकार का और बहुत धीमी गति से बढ़ने वाला वृक्ष है। यह लगभग 30 वर्षों में पककर तैयार होता है और लगभग 125 वर्षों तक जीवित रहता है। यह अर्ध-परजीवी वृक्ष है। इसकी जड़े अपने आसपास के वृक्षों की जड़ो से लिपट जाती है और उनसे अपना भोजन प्राप्त करती है। अर्ध-परजीवी होने के कारण चंदन का वृक्ष सदाबहार बन गया है। अर्थात् यह पूरे वर्ष हरा-भरा रहता है। किंतु परजीवी होने के कारण इनके आसपास वृक्ष नहीं पनप पाते है। एक प्रमुख विशेषता यह है कि केवल इसकी लकड़ी में ही सुगंध होती है। इसके फल, फूल, बीज आदि पूरी तरह गंधहीन होते है।
छह मीटर से बारह मीटर तक ऊँचे चंदन के वृक्ष की शाखाएं और उपशाखाएं पतली एवं कोमल होती है। तने का बाह्य काष्ठ अर्थात तने के बाहरी भाग की लकड़ी तथा कच्ची लकड़ी सफ़ेद और गंधहीन होती है। अन्तःकाष्ठ अर्थात चन्दन के वृक्ष के तने के भीतरी भाग की लकड़ी, विशेष रूप से पुराने वृक्षों के भीतरी भाग की लकड़ी, पीलापन लिये हुए भूरे रंग की होती है एवं इससे भीनी-भीनी मधुर गंध आती है। तने की छाल का बाहरी भाग कालापन लिये धूसर रंग का होता है और इससे किसी प्रकार की गंध नहीं आती। छाल का भीतर वाला भाग लाली लिये हुए हल्के रंग का होता है। चंदन के वृक्ष की छाल पर लम्बी-लम्बी सीधी खड़ी दरारें होती है जिनका भीतरी भाग सफ़ेद होता है। चंदन की लकड़ी के कटे हुए भाग (अनुप्रस्थ परिच्छेद) को यदि ध्यान से देखा जाये तो इसकी सतह पर पीलापन लिये एवं लाली लिये हुए हल्के रंग के अनेक वृत्त दिखाई देते है। ये वास्तव में वार्षिक छल्ले (एनुअलरिंग्स) होते है। इनकी सहायता से चंदन के वृक्ष की आयु मालूम की जा सकती है। वृक्ष की शाखाओं उपशाखाओं पर डंठल युक्त पत्तियां निकलती है। चंदन की पत्तियां जोड़े में होती है एवं शाखा पर एक ही स्थान से एक दूसरे से विपरीत दिशा में निकलती है, पत्तियां चर्मिल एवं चिकनाईयुक्त होती है। इनका स्वरुप अंडाकार होता है तथा आगे का सिरा नुकीला होता है। यह पत्तियां आधार की ओर अर्थात डंठल की ओर भी कम चौड़ी होती है। बीच वाला भाग सर्वाधिक चौड़ा होता है और धीरे-धीरे इनकी चौड़ाई कम होती जाती है और सिरे के निकट पहुंच कर चौड़ाई सबसे कम हो जाती है तथा सिरा नुकीला हो जाता है।
इसके वृक्ष पर फूलों के बाद फल आते है। फूलों के समान फल भी वर्ष में दो बार आते है। छोटे और गोल फल हल्के रंग के होते है तथा पक जाने पर इनका रंग कालापन लिए बैंगनी हो जाता है। यह फल गुदे वाले होते है एवं इनके भीतर बहुत छोटी गुठली होती है। फल विभिन्न प्रकार के पक्षियों का प्रिय भोजन है। चंदन के फल की गुठलियां अर्थात इसके बीजों में तेल होता है। इनसे 50 प्रतिशत से 55 प्रतिशत तक तेल प्राप्त किया जा सकता है। बीजों का तेल लाल रंग का और बहुत गाढ़ा होता है।
एक उपयोगी वृक्ष है। इसकी लकड़ी और लकड़ी से निकाला हुआ तेल अनेक कार्यों में प्रयुक्त होता है। चंदन के वृक्ष की जड़ो से भी तेल प्राप्त किया जाता है। एक किलोग्राम लकड़ी से लगभग 100 मिलीमीटर तेल निकलता है। इसका तेल गाढ़ा और रंगहीन होता है। कभी-कभी इसमें हल्का पीलापन अवश्य दिखाई देता है। इसका स्वाद तीखा, चरपरा और अरुचिकर होता है एवं इसमें एक विशेष प्रकार की तेज सुगंध आती है। चंदन की लकड़ी के बुरादे और तेल निकली हुई लकड़ी की लुगदी से भी इसी प्रकार की मधुर सुगंध आती है। यहां पर विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि चंदन के वृक्ष के तने के भीतरी भाग की लकड़ी (हार्टवुड) का तेल अधिक अच्छा माना जाता है। इसे बोतलों में भरकर सीलबंद कर के अंधेरे और शुष्क स्थानों पर रखा जाता है। इस प्रकार यह लम्बे समय तक सुरक्षित बना रहता है। चंदन का तेल बड़ा उपयोगी होता है। इसके द्वारा विभिन्न रोगों की आयुर्वेदिक औषधियां तैयार की जाती है। इसके साथ ही इसका उपयोग कीमती इत्र, साबुन,मोमबत्ती, धूपबत्ती, अगरबत्ती, पाउडर तथा विभिन्न प्रकार के सौंदर्य प्रसाधनों में किया जाता है।
चंदन मुख्य रूप से औषधीय उपयोग का वृक्ष है। इसकी लकड़ी के बुरादे और तेल से आयुर्वेदिक औषधियों के समान यूनानी दवाएं भी तैयार की जाती है। साथ ही दैनिक जीवन में भी हम चंदन का उपयोग करते है। गर्मियों के मौसम में चंदन के तेल की एक बूंद दूध के साथ सेवन करने से लू का प्रकोप शांत हो जाता है। चंदन का तेल लगाने अथवा चंदन को पानी में घिस कर इसका लेप करने से घमौरियों से राहत मिलती है। सामान्यतया चंदन के द्वारा तैयार की गयी औषधियां दो प्रकार की होती है। पहली वे औषधियां है जिनमे केवल चंदन का उपयोग किया जाता है। इन औषधियों में अन्य जड़ी-बूटियां नहीं मिलायी जाती। दूसरी वे औषधियां है, जिनमे चंदन के साथ ही अन्य जड़ी-बूटियों का भी उपयोग किया जाता है। सेवन कि दृष्टि से भी चंदन से तैयार की गयी औषधियां दो प्रकार की होती है- बाह्य प्रयोग और अंतः प्रयोग, बाह्य प्रयोग की औषधियां खाते अथवा पीते नहीं है, बल्कि इनका उपयोग मलहम, लेप अथवा पाउडर के समान किया जाता है। अंतः प्रयोग की औषधियां शहद, दूध, पानी आदि के साथ गोली, चटनी, शरबत आदि के रूप में सेवन की जाती है।
भारत और पूर्वी एशिया के कुछ अन्य देशों के साथ ही चंदन का वृक्ष दक्षिण प्रशांत के कुछ द्वीपों पर भी पाया जाता है। विश्व में सब मिलाकर चंदन की लगभग 10 प्रजातियां पायी जाती है। इनमे सफ़ेद चंदन (सैंटेलम एल्बम) सर्वाधिक उपयोगी माना जाता है। भारत में चार प्रकार के चंदन के वृक्षों की जानकारी है- सफ़ेद चंदन, पीला चंदन, लाल चंदन और कुचंदन। विद्वानों का मत है कि सफ़ेद चंदन और पीला चंदन एक है तथा लाल चन्दन को ही कुचंदन कहा गया है।
चंदन मध्यम आकार का और बहुत धीमी गति से बढ़ने वाला वृक्ष है। यह लगभग 30 वर्षों में पककर तैयार होता है और लगभग 125 वर्षों तक जीवित रहता है। यह अर्ध-परजीवी वृक्ष है। इसकी जड़े अपने आसपास के वृक्षों की जड़ो से लिपट जाती है और उनसे अपना भोजन प्राप्त करती है। अर्ध-परजीवी होने के कारण चंदन का वृक्ष सदाबहार बन गया है। अर्थात् यह पूरे वर्ष हरा-भरा रहता है। किंतु परजीवी होने के कारण इनके आसपास वृक्ष नहीं पनप पाते है। एक प्रमुख विशेषता यह है कि केवल इसकी लकड़ी में ही सुगंध होती है। इसके फल, फूल, बीज आदि पूरी तरह गंधहीन होते है।
छह मीटर से बारह मीटर तक ऊँचे चंदन के वृक्ष की शाखाएं और उपशाखाएं पतली एवं कोमल होती है। तने का बाह्य काष्ठ अर्थात तने के बाहरी भाग की लकड़ी तथा कच्ची लकड़ी सफ़ेद और गंधहीन होती है। अन्तःकाष्ठ अर्थात चन्दन के वृक्ष के तने के भीतरी भाग की लकड़ी, विशेष रूप से पुराने वृक्षों के भीतरी भाग की लकड़ी, पीलापन लिये हुए भूरे रंग की होती है एवं इससे भीनी-भीनी मधुर गंध आती है। तने की छाल का बाहरी भाग कालापन लिये धूसर रंग का होता है और इससे किसी प्रकार की गंध नहीं आती। छाल का भीतर वाला भाग लाली लिये हुए हल्के रंग का होता है। चंदन के वृक्ष की छाल पर लम्बी-लम्बी सीधी खड़ी दरारें होती है जिनका भीतरी भाग सफ़ेद होता है। चंदन की लकड़ी के कटे हुए भाग (अनुप्रस्थ परिच्छेद) को यदि ध्यान से देखा जाये तो इसकी सतह पर पीलापन लिये एवं लाली लिये हुए हल्के रंग के अनेक वृत्त दिखाई देते है। ये वास्तव में वार्षिक छल्ले (एनुअलरिंग्स) होते है। इनकी सहायता से चंदन के वृक्ष की आयु मालूम की जा सकती है। वृक्ष की शाखाओं उपशाखाओं पर डंठल युक्त पत्तियां निकलती है। चंदन की पत्तियां जोड़े में होती है एवं शाखा पर एक ही स्थान से एक दूसरे से विपरीत दिशा में निकलती है, पत्तियां चर्मिल एवं चिकनाईयुक्त होती है। इनका स्वरुप अंडाकार होता है तथा आगे का सिरा नुकीला होता है। यह पत्तियां आधार की ओर अर्थात डंठल की ओर भी कम चौड़ी होती है। बीच वाला भाग सर्वाधिक चौड़ा होता है और धीरे-धीरे इनकी चौड़ाई कम होती जाती है और सिरे के निकट पहुंच कर चौड़ाई सबसे कम हो जाती है तथा सिरा नुकीला हो जाता है।
इसके वृक्ष पर फूलों के बाद फल आते है। फूलों के समान फल भी वर्ष में दो बार आते है। छोटे और गोल फल हल्के रंग के होते है तथा पक जाने पर इनका रंग कालापन लिए बैंगनी हो जाता है। यह फल गुदे वाले होते है एवं इनके भीतर बहुत छोटी गुठली होती है। फल विभिन्न प्रकार के पक्षियों का प्रिय भोजन है। चंदन के फल की गुठलियां अर्थात इसके बीजों में तेल होता है। इनसे 50 प्रतिशत से 55 प्रतिशत तक तेल प्राप्त किया जा सकता है। बीजों का तेल लाल रंग का और बहुत गाढ़ा होता है।
एक उपयोगी वृक्ष है। इसकी लकड़ी और लकड़ी से निकाला हुआ तेल अनेक कार्यों में प्रयुक्त होता है। चंदन के वृक्ष की जड़ो से भी तेल प्राप्त किया जाता है। एक किलोग्राम लकड़ी से लगभग 100 मिलीमीटर तेल निकलता है। इसका तेल गाढ़ा और रंगहीन होता है। कभी-कभी इसमें हल्का पीलापन अवश्य दिखाई देता है। इसका स्वाद तीखा, चरपरा और अरुचिकर होता है एवं इसमें एक विशेष प्रकार की तेज सुगंध आती है। चंदन की लकड़ी के बुरादे और तेल निकली हुई लकड़ी की लुगदी से भी इसी प्रकार की मधुर सुगंध आती है। यहां पर विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि चंदन के वृक्ष के तने के भीतरी भाग की लकड़ी (हार्टवुड) का तेल अधिक अच्छा माना जाता है। इसे बोतलों में भरकर सीलबंद कर के अंधेरे और शुष्क स्थानों पर रखा जाता है। इस प्रकार यह लम्बे समय तक सुरक्षित बना रहता है। चंदन का तेल बड़ा उपयोगी होता है। इसके द्वारा विभिन्न रोगों की आयुर्वेदिक औषधियां तैयार की जाती है। इसके साथ ही इसका उपयोग कीमती इत्र, साबुन,मोमबत्ती, धूपबत्ती, अगरबत्ती, पाउडर तथा विभिन्न प्रकार के सौंदर्य प्रसाधनों में किया जाता है।
चंदन मुख्य रूप से औषधीय उपयोग का वृक्ष है। इसकी लकड़ी के बुरादे और तेल से आयुर्वेदिक औषधियों के समान यूनानी दवाएं भी तैयार की जाती है। साथ ही दैनिक जीवन में भी हम चंदन का उपयोग करते है। गर्मियों के मौसम में चंदन के तेल की एक बूंद दूध के साथ सेवन करने से लू का प्रकोप शांत हो जाता है। चंदन का तेल लगाने अथवा चंदन को पानी में घिस कर इसका लेप करने से घमौरियों से राहत मिलती है। सामान्यतया चंदन के द्वारा तैयार की गयी औषधियां दो प्रकार की होती है। पहली वे औषधियां है जिनमे केवल चंदन का उपयोग किया जाता है। इन औषधियों में अन्य जड़ी-बूटियां नहीं मिलायी जाती। दूसरी वे औषधियां है, जिनमे चंदन के साथ ही अन्य जड़ी-बूटियों का भी उपयोग किया जाता है। सेवन कि दृष्टि से भी चंदन से तैयार की गयी औषधियां दो प्रकार की होती है- बाह्य प्रयोग और अंतः प्रयोग, बाह्य प्रयोग की औषधियां खाते अथवा पीते नहीं है, बल्कि इनका उपयोग मलहम, लेप अथवा पाउडर के समान किया जाता है। अंतः प्रयोग की औषधियां शहद, दूध, पानी आदि के साथ गोली, चटनी, शरबत आदि के रूप में सेवन की जाती है।